तन्हा ये जिस्म नहीं, ये रूह भी है,खलिश मेरे सीने मे ही नहीं, मेरी आरजू मे भी हैमदनो से मिलना तो तक़दीर थी मेरी , पर दर्द ए इश्क की ये जुस्तजू,अब मेरी ही हैगर जन्नत है इस जहाँ मे ए मेरे खुदा, तो अब तो हमें उसकी हसरत, भी अधूरी सी है,ऐ जिंदगी अब तू गैर ही सही, पर तुझे ज़ीने की ज़रूरत, न जाने आज भी ज़रूरी सी है,अब हम गैरों से क्या गिला करे, हम तो अपनो के खातिर , अपने हाथो ही मजबूर हो गए,निभाई तो कई वफाए इस दिल ने, फिर भी महफिले- ऐ- आशिकी मे हम "बेवफा" महशूर हो गए,यो तो वक़्त, ज़ख़्मी दिलो पर मरहम लगा जाता है, पुरानी यादो मे आज के पैबंद बना जाता है,पर जब ये जिस्म खाक हो जायेगा, तब ही इस दिल के हर ज़र्रे से मदनो फ़ना हो पायेगा
Tuesday, October 26, 2010
खलिश
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shabash
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